Natasha

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राजा की रानी

प्यारी ने स्वप्नविष्ट की तरह कहा, “नहीं।”

“नहीं कैसे? इस तरह चले जाने का अर्थ क्या होगा, सो जानती हो?”

“जानती हूँ- सब जानती हूँ। परन्तु ये लोग तुम्हारे अभिभावक या संरक्षक तो हैं ही नहीं, जो तुम्हें अपने मान के लिए प्राण दे देने होंगे।” इतना कहकर उसने हाथ छोड़कर पैर पकड़ लिये और रुद्ध स्वर में कहा, “कान्त दादा, वहाँ लौटकर जाओगे तो जीते न बचोगे। तुम्हें मेरे साथ न चलना पड़ेगा, परन्तु वहाँ भी वापिस न लौटने दूँगी। तुम्हारा टिकट खरीदे देती हूँ, तुम घर लौट जाओ, वहाँ एक घड़ी-भर के लिए भी मत ठहरो।”

मैं बोला, “मेरे कपड़े-बिस्तर आदि जो वहाँ पड़े हैं!”

प्यारी बोली, “पड़े रहने दो। उनकी इच्छा होगी तो भेज देंगे; नहीं तो जाने दो। उनका मूल्य अधिक नहीं है!”

मैं बोला, “उनका दाम अधिक नहीं है यह सच है; परन्तु, मेरी जो मिथ्या बदनामी होगी, उसका दाम तो कम नहीं है।”

प्यारी मेरे पैर छोड़कर चुप हो रही। गाड़ी इसी समय एक मोड़ पर फिरी, जिससे पीछे का दृश्य मेरे सामने आ गया। एकाएक याद आया कि सामने के उस पूर्व दिशा के आकाश के साथ यह पतिता के मुख की मानो एक गहरी समानता है। दोनों के ही बीच से मानो एक विराट अग्नि-पिण्ड अन्धकार को भेदता हुआ आ रहा है, उसी का आभास मुझे दिखाई दिया है। मैं बोला, “चुप क्यों हो रही?”

प्यारी एक म्लान हँसी हँसकर बोलीं, “तुम क्या जानो कान्त बाबू, कि जिस कलम से जीवन-भर केवल जाली खत लिखती रही हूँ, उसी कलम से आज दान-पत्र लिखने को हाथ नहीं चल रहा है। जाते हो? अच्छा जाओ। किन्तु वचन दो कि आज बारह बजने के पहले ही वहाँ से चल दोगे?”

“अच्छा, देता हूँ।”

“किसी के कितने ही अनुरोध से आज की रात वहाँ न काटोगे, बोलो?”

“नहीं, नहीं, काटूँगा।”

प्यारी ने अपनी अंगूठी उतारकर मेरे पैरों पर रख दी, गल-वस्त्र होकर प्रणाम किया और पैरों की धूल अपने सिर पर लेकर उस अंगूठी को मेरी जेब में डाल दिया। बोली, “तब जाओ-मैं समझती हूँ कि डेढ़ेक कोस जगह तुम्हें अधिक चलना होगा।”

बैलगाड़ी से उतर पड़ा। उस समय प्रभात हो गया था।

प्यारी ने अनुनय करके कहा, “मेरी और भी एक बात तुम्हें रखनी होगी। घर लौटते ही मुझे एक पत्र लिखना होगा।”

मैंने मंजूर करके प्रस्थान किया। एक दफा भी लौटकर पीछे की ओर नहीं देखा कि वे लोग खड़े हैं अथवा आगे चल दिए हैं। परन्तु बड़ी दूर तक अनुभव करता रहा कि उन दो चक्षुओं की सजल-करुण दृष्टि मेरी पीठ के ऊपर बार-बार पछाड़ खा-खाकर गिर रही है।

अड्डे पर पहुँचते प्राय: आठ बज गये। रास्ते के किनारे, प्यारी के उखड़े हुए तम्बू की, बिखरी हुई परित्यक्त वस्तुओं पर मेरी नजर पड़ते ही एक निष्फल क्षोभ छाती में मानो हाहाकार कर उठा। मुँह फेरकर जल्दी-जल्दी पैर रखते हुए मैंने अपने तम्बू में प्रवेश किया।

पुरुषोत्तम ने पूछा, “आप बड़े भोर ही घूमने बाहर चले गये थे?”

हाँ-ना किसी तरह का जवाब दिए बगैर ही मैं बिस्तर पर ऑंखें बन्द करके लेट रहा।
♦♦ • ♦♦

प्यारी के निकट जो वादा किया था उसकी मैंने पूरी रक्षा की, घर लौटते ही मैंने यह खबर जताकर उसे एक चिट्ठी लिख दी। जवाब भी जल्द ही आ गया। मैं एक बात पर बराबर ध्या न दे रहा था कि किसी भी दिन प्यारी ने मुझे अपने पटने के मकान के लिए, जोर डालना तो दूर रहा, साधारण तौर से मौखिक निमन्त्रण भी नहीं दिया। इस पत्र में भी इसका कोई इशारा न था। सिर्फ नीचे की ओर एक निवेदन था, जिसे कि आज भी मैं नहीं भूला हूँ, “सुख के दिनों में नहीं, तो दु:ख के दिनों में मुझे न भूलिए- यही मेरी प्रार्थना है।”

दिन कटने लगे। प्यारी की स्मृति धुँधली होकर प्राय: विलीन हो गयी। परन्तु एक अचरज-भरी बात बीच-बीच में मेरी दृष्टि में पड़ने लगी कि अबकी दफा शिकार से वापिस लौटने के बाद से मेरा मन मानो कुछ अनमना-सा रहने लगा है, जैसे मानो एक अभाव की वेदना, दबी हुई सर्दी के समान, शरीर के रोम-रोम में परिव्याप्त हो गयी है। बिस्तरों पर जाते ही वह चुभने लगती है।

याद आता है कि वह होली की रात थी। माथे पर से अबीर का चूर्ण साबुन से धोकर तब तक साफ नहीं किया था। क्लान्त विवश शरीर से बिस्तर पर पड़ा था। पास की खिड़की खुली हुई थी; उसी में से सामने के पीपल के पत्तों की फाँकों में से आकाशव्यापी ज्योत्स्ना की ओर ताक रहा था। इतना ही याद आ रहा है। परन्तु क्यों दरवाजा खोलकर स्टेशन की ओर चल दिया और पटने का टिकिट कटाकर ट्रेन पर चढ़ गया-वह याद नहीं आता। रात बीत गयी। परन्तु दिन को जैसे ही मैंने सुना कि 'बाढ़' स्टेशन है और पटना आने में अब अधिक बिलम्ब नहीं है, वैसे ही एकाएक वहीं उतर पड़ा। जेब में हाथ डालकर देखा तो घबड़ाने का कोई कारण नज़र नहीं आधा-एक दुअन्नी और दसेक पैसे उस समय भी मौजूद थे। खुश होकर दुकान की खोज में स्टेशन से बाहर हो गया। दुकान मिल गयी। चिउड़ा, दही और शक्कर के संयोग से अत्युत्कृष्ट भोजन सम्पन्न करने में करीब आधा खर्च हो गया। होने दो, जीवन में इस तरह कितना ही खर्च हुआ करता है- इसके लिए रंज करना कायरता है।

गाँव घूमने के लिए बाहर हुआ। घण्टे-भर भी न घूमा था कि अनुभव हुआ, इस गाँव का दही और चिउड़ा जिस परिमाण में उपादेय है उसी परिमाण में पीने का पानी निकृष्ट है। मेरे इतने प्रचुर भोजन को इतने से समय में इस तरह पचाकर उसने नष्ट कर दिया कि, ऐसा मालूम होने लगा कि, मानो दस-बीस दिन से अन्न का दाना भी मुँह में नहीं पड़ा है! ऐसे खराब स्थान में वास करना एक मुहूर्त-भर के लिए भी उचित नहीं है, ऐसा सोचकर स्थान त्याग करने की कल्पना कर ही रहा था कि- देखता हूँ, पास में ही एक आम के बगीचे के भीतर से धुऑं निकल रहा है।

मैंने न्यायशास्त्र सीखा था। धुएँ को देखकर अग्नि का निश्चय से अनुमान कर लिया; इतना ही नहीं, वरन् अग्नि के हेतु का अनुमान करते भी मुझे देर नहीं लगी। इसलिए सीधा उसी ओर चल दिया। पहले ही कह चुका हूँ कि पानी यहाँ का बहुत ही खराब है।

वाह, यही तो चाहिए था! सच्चे सन्यासी का आश्रम मिल गया! बड़ी भारी धूनी के ऊपर लोटे में चाय के लिए पानी चढ़ा है। बाबा आधी ऑंखें मूँदे सामने बैठे हैं, उनके आस-पास गाँजे की सामग्री रखी है। एक सन्यासी बच्चा बकरी दुह रहा है, सेवा के लिए 'चाय' चाहिए। दो ऊँट, दो टट्टू और एक बछड़ेवाली गाय, पास-पास वृक्षों की डालों से बँधे हुए हैं। पास ही में एक छोटा-सा तम्बू है। ढूँककर देखा, भीतर मेरी ही उम्र का एक चेला दोनों पैरों के बीच पत्थर का खल दबाए नीम के सोंटे से भंग तैयार कर रहा है। देखकर मैं भक्ति से सराबोर हो गया और पलक मारते ही बाबाजी के पद-तल में एकबारगी लोट गया। पद-धूलि मस्तक पर धारण कर हाथ जोड़ मन ही मन बोला, “कैसी असीम करुणा है भगवान तुम्हारी! कैसे स्थान में मुझे ले आए। चूल्हे में जाय प्यारी-मुक्ति मार्ग के इस सिंह-द्वार को छोड़कर तिलार्ध भी यदि और कहीं जाऊँ तो, मेरे लिए, अनन्त नरक में भी और जगह न रहे।”

“साधुजी बोले, “क्यों बेटा?”

मैंने निवेदन किया, “मैं गृहत्यागी, मुक्तिपथान्वेषी हतभाग्य शिशु हूँ; मुझ पर दया करके अपनी चरण-सेवा का अधिकार दीजिए।”

साधुजी ने मृदु हँसी हँसकर दो दफा सिर हिलाकर संक्षेप में कहा, “बेटा, घर लौट जा, यह पथ अति दुर्गम है।”

मैंने करुण कण्ठ से उसी क्षण उत्तर दिया, “बाबा, महाभारत में लिखा है, महापापिष्ठ जगाई और माधाई वसिष्ठ मुनि के चरण पकड़कर स्वर्ग चले गये, तो क्या मैं आपके पैर पकड़कर मुक्ति भी नहीं पाऊँगा?।”

साधुजी प्रसन्न होकर बोले, “बात तेरा सच्चा हय। अच्छा बेटा, रामजी की खुशी।” जो दूध दुह रहा था उसने आकर चाय तैयार करके बाबाजी को दी। उसकी 'सेवा' हो गयी, हम लोगों ने प्रसाद पाया।

भाँग तैयार हो रही थी संध्यातकाल के लिए। परन्तु उस समय भी बेला बाकी थी इसलिए और तरह के आनन्द का उद्योग करते हुए 'बाबा ने अपने दूसरे चेले को गाँजे की चिलम इशारे से दिखा दी तथा उसे भरने में देर न हो इसके लिए विशेष 'उपदेश' दे दिया।

आधा घण्टा बीत गया। सर्वदर्शी बाबाजी मेरे प्रति परम सन्तुष्ट होकर बोले, “हाँ बेटा, तुममें अनेक गुण हैं। तुम मेरे चेला होने के अति उपयुक्त पात्र हो।

मैंने, परम आनन्द के साथ, और एक दफा बाबा के चरणों की धूलि मस्तक पर धारण कर ली।

दूसरे दिन मैं प्रात:स्नान करके आया। देखा कि गुरुजी के आशीर्वाद से अभाव किसी चीज का नहीं है। प्रधन चेला जो थे उन्होंने, एक नया टटका गेरुए कपड़ों का सूट, दस जोड़ी छोटी बड़ी रुद्राक्ष की मालाएँ और एक जोड़ा पीतल के कड़े बाहर निकाल दिये। जहाँ जो वस्तु धारण करने की थी उसे उस स्थान पर सजाकर, थोड़ी-सी धूनी की राख मस्तक पर और मुँह पर मल ली। ऑंखें मींचकर मैंने कहा, “बाबाजी, शीशा-वीसा कुछ है? एक दफा मुँह देखने की प्रबल इच्छा हो रही है।” मैंने देखा कि उन्हें भी रस का ज्ञान है। फिर भी उन्होंने कुछ गम्भीर होकर उपेक्षा से कहा, “है एक ठो।”

“तो फिर, छुपाकर ले न आइए एक दफा।”

दो मिनट के बाद आईना लेकर मैं एक वृक्ष की आड़ में चला गया। पश्चिम के नायी जिस तरह का आईना हाथ में देकर क्षौर-कर्म सम्पादित करते हैं, उसी तरह की वह छोटी सी टीन चढ़ी हुई आरसी थी। खैर जैसी भी हो, मैंने देखा कि वह विशेष तरद्दुद किये जाने और सदा व्यवहार में आने के कारण खूब साफ-सुथरी थी। चेहरा देखकर हँसे बिना न रहा गया। कौन कह सकता था कि मैं वही श्रीकान्त हूँ जो कुछ ही समय पूर्व राजे-राजवाड़ों की मजलिस में बैठकर बाईजी का गान सुना करता था? खैर, जाने दो।

मैं घण्टे-भर के बाद गुरुमहाराज के समीप दीक्षा के लिए लाया गया। महाराज चेहरा देखकर अतिशय प्रीति के साथ बोले, “बेटा, एकाध महीना ठहर जाओ।”

मैं धीरे-से 'बहुत अच्छा', कहकर उनकी पदधूलि ग्रहण करके, हाथ जोड़कर भक्ति से भरकर एक तरफ बैठ गया।

आज बातों ही बातों में उन्होंने आध्यानत्मिकता के अनेक उपदेश दिये। इसकी दुरूहता के विषय में गम्भीर वैराग्य और कठोर साधाना के विषय में-आजकल के भण्ड पाखण्डी लोग इसे किस तरह कलंकित करते हैं उसका विशेष विवरण तथा भगवत् के पाद-पद्मों में मति को स्थिर करने के लिए क्या-क्या करना आवश्यक है- इस काम में वृक्षजातीय शुष्क वस्तु विशेष के धुएँ को बार-बार मुख-विवर के द्वारा शोषण करके नासा-रन्ध्रं पथ से शनै:-शनै: विनिर्गत करने से कितना आश्चर्यकारी उपकार होता है- आदि सब उन्होंने अच्छी तरह समझा दिया, और इस विषय में मेरी अवस्था अत्यन्त आशाप्रद है, यह इशारे से बताकर उन्होंने मेरे उत्साह को खूब बढ़ाया! इस तरह उस दिन मोक्ष-पद के अनेक निगूढ़ तात्पर्यों को जानकर मैं, गुरु महाराज के तीसरे चेले के रूप में बहाल हो गया।

गहरे वैराग्य और कठोर साधना के लिए, महाराज के आदेश में, हम लोगों की सेवा की व्यवस्था कुछ कठोर किस्म की थी। परिणाम में वह जैसी थी स्वाद में भी वैसी ही थी। चाय, रोटी, घी, दूध, दही, चिवड़ा, शक्कर इत्यादि कठोर सात्वि‍क भोजन और उन्हें पचाने के अनुपान। भगवत्पादार्विदों से हमारा चित्त विक्षिप्त न हो, इस ओर भी हम लोगों की लेशमात्र लापरवाही नहीं थी। इसके फलस्वरूप मेरे सूखे काठ में फूल लग गये और कुछ तोंद बढ़ने के लक्षण भी दिखाई देने लगे।

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